पुष्पा, द रूल – पार्ट 2, महत्त्वाकांक्षा के बोझ तले ढहता एक महाकाव्य

By sunilkohar

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Pushpa: The Rule – Part 2 Review; The Film Is Crushed Under The Weight Of Its Own Vaulting Ambition

पुष्पा: द रूल – पार्ट 2 फिल्म ने अपने पहले भाग की अपार सफलता के बाद दर्शकों की उम्मीदों को फिर से जगाया है। लेखक-निर्देशक बी. सुकुमार ने एक बार फिर भरपूर मनोरंजन का प्रयास किया है लेकिन इस बार उनकी महत्त्वाकांक्षाएं फिल्म के दामन में बाधा डालती दिखाई देती हैं।

इस 200 मिनट की फिल्म में, नायक पुष्पा के किरदार में अल्लू अर्जुन अपनी उत्कृष्टता को बरकरार रखते हैं, लेकिन कहानी की मजबूती और तर्कसंगतता कई जगहों पर कमजोर पड़ जाती है। फिल्म का पहला आधा भाग पुष्पा की शक्ति और उसके दुश्मनों के बीच जद्दोजहद को दिखाने के लिए प्रयासरत है, लेकिन यह कई दृश्यों में बेतुकी और खींची हुई लगती है।



पुष्पा, द रूल - पार्ट 2, महत्त्वाकांक्षा के बोझ तले ढहता एक महाकाव्य


 


 

समीक्षक सैबेल चटर्जी का कहना है, “पुष्पा: द रूल – पार्ट 2 कई बार अपने खुद के बड़बोलेपन के बोझ तले दब जाता है। हालांकि, यह पूरी तरह से एक बोरिंग अनुभव नहीं बनता है, लेकिन कुछ हिस्से बेहद निराशाजनक हैं।”

फिल्म में अल्लू अर्जुन के अलावा, फहद फासिल भी मुख्य भूमिका में हैं, जो अपने चरित्र के माध्यम से कथानक में हल्का-फुल्का और बड़बोला अंदाज लाते हैं। पहले भाग की तरह ही, इस बार भी फिल्म का दृश्यात्मक अनुभव और सिनेमेटोग्राफी काफी प्रभावशाली है, जैसा कि सिनेमेटोग्राफर मिरोस्वाल कुबा ब्रोजेक ने दर्शाया है।

पुष्पा, जो अब एक समर्पित पति और अपराध साम्राज्य का मालिक बन गया है, अपनी शक्तियों का विस्तार करते हुए दुबई तक पहुँच जाता है। लेकिन उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है आईपीएस अधिकारी भंवर सिंह शेखावत, जो उसके साम्राज्य को ध्वस्त करने की कोशिश करता है।

फिल्म में महिलाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है, जो पुष्पा के जीवन में न केवल भावनात्मक समर्थन प्रदान करती हैं, बल्कि उसे चुनौती भी देती हैं। रश्मिका मंदाना का किरदार श्रीवैली, उसकी पत्नी, इस दृष्टिकोण को और भी मजबूत बनाता है।

फिल्म का एक महत्वपूर्ण दृश्य पुष्पा द्वारा देवी काली की पूजा में एकदूसरे के खिलाफ पुरुषों के समूह पर उसकी शक्ति का प्रदर्शन है। यह दृश्य दर्शकों को यह संदेश देता है कि शक्ति केवल पुरुषों तक सीमित नहीं है।

 

हालांकि, पूरी फिल्म के तर्क और घटनाक्रम कई बार थकाने वाले और बिना प्रेरणा के लगते हैं। चटर्जी का कहना है, “फिल्म के कागज पर सभी तत्व मौजूद हैं, लेकिन यह एक गहन और सार्थक कहानी बताने में असफल रहती है।”

फिल्म का अंत एक अप्रत्याशित मोड़ के साथ होता है, जो दर्शकों को अपने पैरों पर खड़े करने के लिए मजबूर करता है। पुष्पा की यात्रा, जो अपने आधे भाई से संबंधों की जटिलता और प्रतिकूलताओं से भरी है, अंततः एक गहन संदेश देती है।

**निष्कर्ष:**

पुष्पा: द रूल – पार्ट 2 एक ऐसा अनुभव है जो अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और लगातार बढ़ते स्वरूप के साथ दर्शकों को जोड़ने की कोशिश करता है। हालांकि, यह अपने खुद के बड़बोलेपन और कई खींचे हुए दृश्यों के बोझ तले दबा हुआ प्रतीत होता है। अल्लू अर्जुन का प्रदर्शन उल्लेखनीय है, लेकिन क्या फिल्म अपने पैरों पर टिक पाएगी यह संदेहास्पद है। सुकुमार की यह महाकविता, भले ही एक मनोरंजक अनुभव देती हो, लेकिन अपनी पूरी क्षमता को पूरा करने में विफल हो जाती है।


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